Sunday, January 1, 2006

कम से कम इक दो मुखालिफ भी तो होने चाहिए सब को खुश रखने में तुम सब के बुरे हो जाओगे ..आदिल रशीद




मेरा और मेरी बेटी अर्नी सहर का जन्मदिन एक ही दिन २५ दिसम्बर को है जब हमारे एक ख़ास रिश्तेदार ने महज़ (केवल) किसी (मेरे मुखालिफ) को खुश करने के लिए उस दावत में शिरकत नहीं की तो मेरी बड़ी बेटी ज़ेबा इरम उदास हो गई और उसने मुझसे इसका कारण पूछा तो मैं ने उस मासूम को बताया के बेटा उनके पेट में दर्द था यूँ नहीं आये (मैं उस मासूम को इस उम्र में ये सब सियासत की बाते बताना नहीं चाहता था)
उस  समय यानि २५ दिसम्बर २००२  को  मुझे अपना ये शेर बहुत याद आया.
कम से कम  इक दो मुखालिफ भी तो होने चाहिए
सब को खुश रखने में तुम सब के बुरे हो जाओगे ..आदिल रशीद
کم سے کم اک دہ مخالف بھی تو ہونے چاہئے

سب کو خوش رکھنے میں تم سب کے بُرے ہو جاؤگے
عادل رشید